गोरखपुर के बाबा गोरखनाथ की कथा और शाबर विद्या मंत्र
भाग्यवश माता पार्वती सो गई लेकिन मछली के पेट में पल रहे शिशु में कथा के हर एक अंश पे हामी भरी लेकिन भगवन शंकर को ये ध्वनि सुन कर कुछ शंका हुई, तो भगवन शिव ने माता पार्वती से मुझे की क्या आपको मेरा उपदेश समझ में आया तब पार्वती जी के निद्रा मग्न होने के कारण मछली के गर्भ से शिशु की आवाज आई की हाँ मैंने आपके उपदेश के गूढ़ रहश्य को जान लिया है, की “यह पूरा ब्रह्माण्ड शिवमय है और शिव ही ब्रह्माण्ड है” इस वाणी को सुनाने के बाद भगवान शिव आश्चर्यचकित रह गए और सोचने लगे की इस वीरान जगह पर ऐसा कौन है जो मेरे ही गूढ़ रहश्य को सुन कर मेरे प्रश्नो के उत्तर दे रहा है, फिर भगवान शिव ने अपने योग शक्ति से जान लिया की ये कोई और नहीं बल्कि मछली के पेट में पल रहे शिशु की आवाज है। तो भगवान शिव ने कहा मुझे पूरी उम्मीद है, की तुम इस ज्ञान का सदुपयोग करोगे। अभी इसी ज्ञान का सुमिरन करो लेकिन जन्म के बाद ज्ञानार्जन के लिए बद्री धाम आ जाना मै वहा तुमको ऋषि दत्तात्रेय से शिक्षा दिलवाऊंगा। इतना कह कर भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए बाद में उस मछली ने एक शिशु को जन्म दिया और खुद जलमग्न हो गई। अण्डे को देख कर कुछ बगुले आ गए तथा एक बगुले ने अंडे पे चोच मारी ऐसा करने पर अंडा टूट गया और बच्चा बाहर निकल कर रोने लगा, रोने की आवाज सुनकर बगुला वहाँ से चले गए लेकिन बच्चे के रोने की आवाज दूर तक सुनाई दे रही थी तभी कॉमिक नाम का एक मच्छुहारा मछली पकड़ने के उद्देश्य से वहाँ आ गया मच्छुहारा निःसंतान था और वो बच्चे को अकेला देख उसे जैसे ही उठाया वैसे ही बच्चे का रोना बंद हो गया और तभी एक आकाशवाणी हुई की हे कॉमिक इस शिशु का जन्म मछली के गर्भ से हुआ है। तुम्हारी गोद में स्वयं नारायण है, अतः तू ऐसे घर ले जा और पालन पोशण कर आकाशवाणी सुन कर मछुआरे को बड़ी प्रसन्ता हुई अतः वह शिशु को घर ले गया और अपनी पत्नी के गोद में रख दिया बच्चे को देख कर उसकी पत्नी बहुत प्रसन्न हुई और प्रसन्नता से बच्चे को स्तनपान कराया। धीरे धीरे समय बिताता गया, अब बालक बड़ा हो गया था। मछुआरा और उसकी पत्नी रोज मछली पकड़ने जाते थे, लेकिन एक दिन मछुआरे की पत्नी की तबीयत कुछ ठीक नहीं तो मछुआरे ने बालक को ही साथ ले लिया और बालक को किनारे पे ही बिठा कर खुद पानी में उतर कर जाल बिछाने लगा उस दिन भाग्यवश उसने काफी मछलिया पकड़ी और पकड़ी हुई मछलियों को वो बालक मत्स्येन्द्रनाथ के सामने टोकरी में रख दिया। जब मत्स्येन्द्रनाथ ने मछलियों को तड़पते देखा तो मछलियों को टोकरी से उठा के वापस समुद्र में डाल दिया जब मछुआरा दोबारा मछलियों को लेकर आया तो उसने देखा कि कटोरा खाली है, तो फिर उसने मत्स्येन्द्रनाथ से पूछा क्या की मछलियां कहाँ गई का तब मत्स्येन्द्रनाथ ने जवाब दिया कि मुझे मछलियों का तड़पना नहीं देखा गया तो मैंने वापस इन्हें समुद्र में डाल दिया यह सुनकर मछुआरे ने बोला कि तुमने मेरी दिनभर की मेहनत बेकार कर दी है तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि हम मछली नहीं पकड़ेंगे तो खाएंगे क्या तो मत्स्येंद्रनाथ ने सोचा कि मेरा पिता मछलियां पकड़ना छोड़ेगा नहीं और मुझसे मछलियों का तड़पना देखा नहीं जाएगा यह सोच कर मत्स्येन्द्रनाथ ने उस जगह का त्याग कर दिया।
मत्स्येन्द्रनाथ समुद्र तट से शिव शिव करते हुए वह बद्रीनाथ पहुंच गए और वहां पर एकांत में तपस्या करने लगे मत्स्येन्द्रनाथ का घोर तप देखकर भगवान शिव अति प्रसन्न हुए और दत्तात्रेय को अपने साथ लेकर बद्रीनाथ जहां पर मत्स्येन्द्रनाथ तपस्या कर रहे थे, वहां पहुंच गए दत्तात्रेय ने मत्स्येन्द्रनाथ से पूछा पुत्र तुम्हारा नाम क्या है,और तुम्हारे तप का क्या उद्देश्य है मत्स्येन्द्रनाथ ने प्रश्न का उत्तर देने से पहले पूछा कि पहले आप बताइए आप कौन हैं और आप यहां क्यों आए हैं। भगवान दत्तात्रेय ने कहा मेरा नाम दत्तात्रेय है, तुम्हारी तपस्या देखकर तुम्हें वरदान लेने के लिए मुझे तुम्हारे पास आना पड़ा है। फिर मत्स्येन्द्रनाथ ने कहा क्या आप मुझे वरदान दें दत्तात्रेय ने तथास्तु कहा ऐसा कहते ही मत्स्येन्द्रनाथ का शरीर स्वस्थ हो गया इसके बाद दत्तात्रेय ने मत्स्येन्द्रनाथ के कान में गोपनीय मंत्र फूंका और नाथ पंथ की शिक्षा देकर मत्स्येन्द्रनाथ को लेकर वहां पहुंचे जहां भगवान शिव विराजमान थे। भगवान शिव को देख मत्स्येन्द्रनाथ उनके चरणों में गिर पड़े महादेव ने उसे उठाकर छाती से लगा लिया और बालक को देखकर भगवान शिव बोले :-
हे दत्तात्रेय मैंने इस बालक को मछली के गर्भ में देखा था। इस बालक ने मेरे द्वारा दिए गए दिव्य ज्ञान को सुन लिया था, और उसके रहस्य की पूर्ण जानकारी प्राप्त कर ली थी। हे दत्तात्रेय आपने इसे नाथ पंथ कीशिक्षा देकर इसके साथ उचित ही किया है। आप अब इसे आपनी समस्त विद्याओं का भी ज्ञान दे आपका शिष्य संपूर्ण संसार में आपका मस्तक ऊंचा करेगा यह कहकर भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए। दत्तात्रेय ने मत्स्येन्द्रनाथ को वेद वेदांत मंत्र तंत्र और शास्त्रों की गूढ़ विद्या दी और उन्हें नगर नगर घूम घूम कर प्राणियों के दुख दूर करने का आदेश दिया दत्तात्रेय के आदेशानुसार विभिन्न तीर्थों पर घूमते हुए जब मत्स्येन्द्रनाथ 12 साल के हो गए तब उन्होंने साबर तंत्र की रचना की और उन्हें भगवान ने प्रसन्न होकर वरदान दिया कि मत्स्येन्द्रनाथ तेरे द्वारा रची गई साबर तंत्र का प्रयोग शुद्ध अंतःकरण से जो भी करेगा मैं उसकी मनोकामना जरूर पूरी करूंगा आज से तू संसार में मत्स्येन्द्रनाथ के नाम से जाना जाएगा मत्स्येन्द्रनाथ कुछ समय बाद बंगाल के चंद्रगिरी नाम के नगर में पहुंचे वास्तु रे दलाल नाम का एक पंडित रहता था उसकी पत्नी का नाम सरस्वती था, वह पतिव्रता तो थी ही लेकिन संतानहीन भी थी , एक दिन मत्स्येंद्रनाथ उसके दरवाजे पर अलक अलक करते हुए पहुंच गए जब सरस्वती ने घर के भीतर से उनका अलक -अलक शब्द सुना तो वह एक पात्र में अन्न भरकर दरवाजे पर आई, जब उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को दरवाजे पर खड़ा हुआ पाया तो उनके कमंडल में लाया हुआ अन्न डाल दीया। उसके पश्चात चरण स्पर्श करने लगी मत्स्येंद्रनाथ ने उसकी मन की भावना को समझने में देर नहीं लगाई और कहां माता तुम किस कारण से दुखी हो मुझे बताओ। सरस्वती बोली हे प्रभु वैसे तो मुझे कोई परेशानी नहीं है किंतु संतान न होने के कारण मुझे सब लोग बाझ कहते हैं। इस कारण मैं दुखी हूं, मत्स्येंद्रनाथ सरस्वती की वाणी सुनकर उन्हें अपना हाथ आगे करने को कहा और फिर मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी डोली से एक विभूति निकालकर उनके हाथ पर रख दिया। और बोलै कि तुम ऋतु स्नान के बाद खीर के साथ इसे खा लेना तुम्हारे यहां एक अंशी अवतार पैदा होगा जो रिद्धि-सिद्धिओ का स्वामी होगा। मैं 12 वर्ष बाद उसे देखने के लिए आऊंगा सरस्वती ने मत्स्येंद्रनाथ की विभूति को अपने पास रख लिया और उसने संकल्प किया कि वह ऋतु स्नान के बाद इस विभूति को ग्रहण करेगी पर विधाता को तो कुछ और ही मंजूर था सरस्वती को उसकी कुछ सहेलियों ने गुमराह किया की बूटी मत खाओ तो सरस्वती ने मत्स्येंद्रनाथ की दी हुई विभूति को गांव के गड्ढे में डाल दिया। विभूति ने अपना प्रभाव दिखाया और गोबर के गड्ढे में से ही एक बालक का जन्म हुआ इस प्रकार लगभग 12 वर्ष व्यतीत होगा। जब अपने कहे अनुसार मत्स्येंद्रनाथ वापस 12 साल बाद लौटे तो उन्होंने सोचा कि अब तो वह बालक युवा हो चुका होगा और सरस्वती के दरवाजे पर अलख़ -अलख़ करते हुए पहुंच गए सरस्वती अंदर से बाहर आई और 12 वर्ष पहले वाले योगी को अपने दरवाजे पर खड़ा पाया सरस्वती को उसे पहचानते हुए देर ना लगी वह भिक्षा को उनके पात्र में डाल कर वापस चलने लगी तो मत्स्येंद्रनाथ ने पूछा कि है माथे अब तो तुम्हारा बालक बड़ा हो गया होगा क्या उसी मुझसे आशीर्वाद नहीं दिलवावोगी। साधु की ऐसी बात सुनकर सरस्वती डर गई उन्होंने चुप्पी साध ली सरस्वती को मौन देखकर मत्स्येंद्रनाथ ने पूछा हे माता क्या संतान पैदा नहीं हुई या फिर पैदा होकर नष्ट हो गई कुछ तो उत्तर दो अंततः सरस्वती ने उन्हें सारा वृत्तांत बताया तब मशीनस गड्ढे के पास गए और और उसमें झांक के कहा कि है बालक अगर तुम्हारा जन्म हो गया है तो बाहर निकलो उसी समय गड्ढे से उत्तर मिला गुरु जी मैं इस गड्ढे के भीतर बैठा हुआ हूं मेरे ऊपर कूड़े करकट का इतना ढेर है कि मुझे बाहर निकलना संभव नहीं आप कृपया मुझे यहां से बाहर निकल वादे यह देखकर वहां उपस्थित सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ सबने मिलकर जब गोबर के ढेर को गड्ढे से हटाया तो भीतर से एक बालक निकला बालक को देखकर मत्स्येंद्रनाथ ने बोला बेटा तुम्हारी उत्पत्ति गाय के गोबर से हुई है इसलिए तुम्हारा नाम गोबरनाथ होगा। यही बात में गोरखनाथ हुए मत देना अपनी गोरखनाथ को अपने साथ ले लिया और नाथ संप्रदाय में सम्मिलित कर लिया अपने और अपने साथ उन्हें देशाटन पर ले जाने लगे भ्रमण करते हुए जब दोनों उत्कल राज्य में पहुंचे मत्स्येंद्रनाथ की प्रबल अभिलाषा जगन्नाथ के दर्शन को हुई और राज्य के बाहर एक मंदिर के पास जा पहुंचे मत्स्येंद्रनाथ अपने शिष्य की गुरु भक्ति को देखना चाहते थे।
वह बोले पुत्र मुझे बड़ी भूख लगी है भूख को शांत करना अति आवश्यक है वरना मेरे प्राण पखेरू ही उड़ जाएंगे गुरु मत्स्येंद्रनाथ की इच्छा सुनकर गोरखनाथ बोले आप आज्ञा करें मुझे क्या करना चाहिए अब हमसे न बोले कि बेटा नगर में जाकर भिक्षा मांग लाओ भूख शांत करने का सबसे सरल उपाय है। गोरखनाथ अपने गुरु की आज्ञा मानकर कमंडल लेकर नगर में भिक्षा मांगने चले गए ऐसा मत्स्येंद्रनाथ इसलिए किया था क्योंकि वह अपनी गोपनीय विद्या किसी योग्य शिष्य को देना चाहते थे घर घर अलख जगाने के बाद जब उन्हें कुछ भी नहीं मिला तो उन्होंने आगे देखा कि वही पर एक ब्राह्मण के घर में धूमधाम से पितृ श्राद्ध की पूजा हो रही है। गोरखनाथ वहां पर जोर से अलख़ अलख़ शब्द दोहराए तो वहां से गृह स्वामिनी ने अपने बने सारे पकवान और दही बड़े लाकर गोरखनाथ के कमंडल में डाल दिया और गोरखनाथ को उन्हें आशीर्वाद देकर अपना भिक्षा पात्र अपने गुरु के सामने ले जा कर रख दिया मत्स्येंद्रनाथ बड़े प्रसन्न हुए वह भोजन खाते जाते और एक एक सामग्री की प्रशंसा करते जाते थे उन्हें उन सारे पकवानों में से दही बड़े सबसे ज्यादा पसंद आए भोजन करने के पश्चात उन्होंने बोला हे गोरख तुम्हारे द्वारा लाई गई सारी पकवान अच्छी थी। लेकिन दही बड़े मुझे बहुत ज्यादा पसंद आए तो तुम जाकर मेरे लिए एक और दही वाड़ा ले आओ गोरखनाथ ने अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए फिर उस दरवाजे पर जा पहुंचे और पहले की तरह अलख़ जगाने लगे गृह स्वामिनी फिर घर से बाहर आई और गोरखनाथ को अपने दरवाजे पर खड़ा देखकर क्रोधित होकर बोली मैंने तुम्हें पहले ही पर्याप्त मात्रा में भोजन दे दिया दिया था क्या तुम्हारा पेट नहीं भरा गोरखनाथ विनम्र स्वर में बोले हे माते मेरे साथ मेरे गुरुजी भी हैं मैंने आपकी दी हुई सामग्री अपने गुरुदेव के सामने रखी तो उन्होंने बड़े प्रेम पूर्वक खाई अभी उनकी इच्छा एक दो और दही बड़े खाने की है, इसलिए मुझे आपके द्वार पर दोबारा आना पड़ा उनकी इस बातों को सुनकर भी स्वामिनी ने बोली कि मुझे तू तो पे तू ही नजर आ रहा है तेरा ही मन नहीं दही बड़े खाने को हो रहा होगा और तू अपने गुरु का नाम बदनाम कर रहा है गोरखनाथ पुणे नम्र स्वर में बोले कि हे माते मैं कभी झूठ नहीं बोलता मेरा विश्वास करें इतनी बात सुनकर वह बोली तुम लोगों को मैं अच्छी तरह पहचानती हूं तुम किसी की भलाई तो कर नहीं सकते बल्कि कई हस्तियों को परेशान करना तुम्हारा स्वभाव है फिर गोरखनाथ ने बोला की हे माता अगर कोई परेशानी हो तो मैं उसे दूर कर सकता हूं आप केवल मेरे गुरु की इच्छा पूर्ति के लिए दही बड़े दे तब गृह स्वामिनी ने बोला कि अरे साधु तेरे पास रखा ही क्या है जो तुम मुझे देगा गोरखनाथ बोले हे माते आप एक बार आदेश तो करें जब तक आप नहीं कहेंगे मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं आपकी क्या इच्छा पूर्ति कर सकता हूं यह बात सुनकर गृह स्वामिनी ने बोला कि क्या एक दही बड़े के बदले तू अपनी एक आंख मुझे दे सकता है गोरखनाथ ने बोला की मां आंख देना कौन सी बड़ी बात है मैं तो अपने गुरु के लिए अपने प्राण भी दे सकता हूं गृहस्वामिनी ने बोला कि ठीक है मैं भीतर से दही बड़े लेकर आ रही हूं तू अपनी आंख निकाल के रख इतनी बात कहकर गृहस्वामिनी दही बड़े लाने के लिए घर के अंदर चली गई और तब तक गोरखनाथ ने अपनी एक आंख बाहर निकाल ली थी जिसकी वजह से उनकी आंख से लगातार खून बह रहा था स्वामी जब लेकर दरवाजे पर पहुंची दो गोरखनाथ की गुरु भक्ति को देखकर उसके होश उड़ गए वह मन ही मन दुखी हो गई और दही बड़ा देकर जाने लगी तो गोरखनाथ बोले हे माते यहां भी लेती जाओ यह कहकर अपनी आंख गृहस्वामिनी की तरह बढ़ाई तो स्वामिनी ने पश्चाताप के स्वर में बोला कि मुझे क्या करना है तेरी आंख का मैं यह कह कर ही अत्यंत दुखी हो चुकी हूं इतना सुनकर गोरखनाथ ने अपनी आंख में पुतली को रख लिया और ऊपर से एक भीगा हुआ कपड़ा बाद लिया और उन्होंने अपना एक हाथ अपने आंख पर और दूसरे से दही बड़ा पकड़े हुए अपने गुरु के पास पहुंचे फिर हाथ जोड़कर बोलेगी गुरुजी केवल एक ही दही बड़े मिल पाया तब मत्स्येंद्रनाथ ने बोला की कोई बात नहीं पुत्र पर तेरी आंख में पट्टी क्यों बनी हुई है गोरखनाथ ने बोला कि गुरुदेव कोई विशेष बात नहीं है आंख की पुतली में दर्द हो रहा है मत्स्येंद्रनाथ ने बोला कि जरा इधर दिखाओ पुत्र मैं भी तो देखूं तुम्हारे दर्द का कारण क्या है जब बात छुपती ना देखी तो गोरखनाथ ने सारा वृत्तांत कह सुनाया,अपने शिष्य की यह घटना सुनकर मत्स्येंद्रनाथ को बड़ा ही क्रोध आया और अपने गुरु को क्रोधित देखकर गोरखनाथ बोले गुरुदेव यह घटना भूल बस हुई है इसलिए दिन गृह स्वामिनी अधिक दोषी नहीं है आप उसे क्षमा कर दें मत्स्येंद्रनाथ बोले पुत्र जब तुमने ही उन्हें क्षमा कर दिया तो मैं भी उसे क्यों रुष्ट होने लगा अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि मुझे गुरु भक्त शिष्य मिल गया है जो मेरी इच्छा पूर्ति के लिए अपने प्राण भी दे सकता है ऐसे गुरु भक्तों को मैं अपनी सभी को अपनी विद्याओं को सिखाकर परिपूर्ण ना बनाऊ तो मेरा जीवन बेकार है फिर मत्स्येंद्रनाथ ने गोरखनाथ को समस्त विद्या सिखाई इसके बाद वह कनक गिरी गांव में चलकर वहां पर गोरखनाथ को सारे पुराने वेदो की शिक्षा दी और इसके बाद उन्होंने अगले चरण में उन्हें संजीवनी विद्या और शाबर मंत्रों का मूल विद्या सिखाया तथा भूत प्रेत डाकिनी शाकिनी बेताल पिचास इत्यादि को वश में करने के मंत्र बताएं इस प्रकार मत्स्येंद्रनाथ अपने सारे गुरुओं से प्राप्त शिक्षा को गोरखनाथ को दे दिया।